उस के शर से मैं सदा माँगता रहता हूँ पनाह
इसी दुनिया से मोहब्बत भी बला की है मुझे
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मुख़्तसर ही सही मयस्सर है
आफ़रीं लुत्फ़-ए-कलाम-ए-यार पर
सच यही है कि बहुत आज घिन आती है मुझे
सैंत कर ईमान कुछ दिन और रखना है अभी
सभी मुसाफ़िर चलें अगर एक रुख़ तो क्या है मज़ा सफ़र का
तुम्हारे आलम से मेरा आलम ज़रा अलग है
सारे मंज़र हसीन लगते हैं
रखे रखे हो गए पुराने तमाम रिश्ते
अख़ीर-ए-शब सर्द राख चूल्हे की झाड़ लाएँ
मुझे क़रार भँवर में उसे किनारे में
ये क्या बद-मज़ाक़ी है गर्द झाड़ते क्यूँ हो