सारे मंज़र हसीन लगते हैं
दूरियाँ कम न हों तो बेहतर है
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तुम्हारे आलम से मेरा आलम ज़रा अलग है
मुस्तक़र की ख़्वाहिश में मुंतशिर से रहते हैं
यहाँ पे हँसना रवा है रोना है बे-हयाई
सैंत कर ईमान कुछ दिन और रखना है अभी
सच यही है कि बहुत आज घिन आती है मुझे
वो और होंगे नुफ़ूस बे-दिल जो कहकशाएँ शुमारते हैं
मुझे क़रार भँवर में उसे किनारे में
आहिस्ता बोलिएगा तमाशा खड़ा न हो
ख़ूबियों को मस्ख़ कर के ऐब जैसा कर दिया
हम उस की ख़ातिर बचा न पाएँगे उम्र अपनी
हँस हँस के उस से बातें किए जा रहे हो तुम