सभी मुसाफ़िर चलें अगर एक रुख़ तो क्या है मज़ा सफ़र का
तुम अपने इम्काँ तलाश कर लो मुझे परिंदे पुकारते हैं
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तुम्हारे आलम से मेरा आलम ज़रा अलग है
तिरे तसव्वुर की धूप ओढ़े खड़ा हूँ छत पर
सैंत कर ईमान कुछ दिन और रखना है अभी
वो और होंगे नुफ़ूस बे-दिल जो कहकशाएँ शुमारते हैं
सारे मंज़र हसीन लगते हैं
अख़ीर-ए-शब सर्द राख चूल्हे की झाड़ लाएँ
सच यही है कि बहुत आज घिन आती है मुझे
उस के शर से मैं सदा माँगता रहता हूँ पनाह
मुझ से कल महफ़िल में उस ने मुस्कुरा कर बात की
ख़ूबियों को मस्ख़ कर के ऐब जैसा कर दिया
आफ़रीं लुत्फ़-ए-कलाम-ए-यार पर
मुख़्तसर ही सही मयस्सर है