हम उस की ख़ातिर बचा न पाएँगे उम्र अपनी
फ़ुज़ूल-ख़र्ची की हम को आदत सी हो गई है
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सैंत कर ईमान कुछ दिन और रखना है अभी
सारे मंज़र हसीन लगते हैं
अख़ीर-ए-शब सर्द राख चूल्हे की झाड़ लाएँ
तुम्हारे आलम से मेरा आलम ज़रा अलग है
हँस हँस के उस से बातें किए जा रहे हो तुम
यहाँ पे हँसना रवा है रोना है बे-हयाई
चिलचिलाती-धूप थी लेकिन था साया हम-क़दम
मुझे क़रार भँवर में उसे किनारे में
सभी मुसाफ़िर चलें अगर एक रुख़ तो क्या है मज़ा सफ़र का
मुझ से कल महफ़िल में उस ने मुस्कुरा कर बात की
वा'दा था कब का बार-ए-ख़ुदा सोचने तो दे
ये क्या बद-मज़ाक़ी है गर्द झाड़ते क्यूँ हो