हँस हँस के उस से बातें किए जा रहे हो तुम
'साबिर' वो दिल में और ही कुछ सोचता न हो
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अख़ीर-ए-शब सर्द राख चूल्हे की झाड़ लाएँ
वा'दा था कब का बार-ए-ख़ुदा सोचने तो दे
आहिस्ता बोलिएगा तमाशा खड़ा न हो
आफ़रीं लुत्फ़-ए-कलाम-ए-यार पर
मुझे क़रार भँवर में उसे किनारे में
सैंत कर ईमान कुछ दिन और रखना है अभी
मुझ से कल महफ़िल में उस ने मुस्कुरा कर बात की
मुख़्तसर ही सही मयस्सर है
ख़ूबियों को मस्ख़ कर के ऐब जैसा कर दिया
सभी मुसाफ़िर चलें अगर एक रुख़ तो क्या है मज़ा सफ़र का
सारे मंज़र हसीन लगते हैं