आफ़रीं लुत्फ़-ए-कलाम-ए-यार पर
है यक़ीं इक़रार का इंकार पर
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ख़ूबियों को मस्ख़ कर के ऐब जैसा कर दिया
अख़ीर-ए-शब सर्द राख चूल्हे की झाड़ लाएँ
वो और होंगे नुफ़ूस बे-दिल जो कहकशाएँ शुमारते हैं
तिरे तसव्वुर की धूप ओढ़े खड़ा हूँ छत पर
हमारी बेचैनी उस की पलकें भिगो गई है
आहिस्ता बोलिएगा तमाशा खड़ा न हो
मुख़्तसर ही सही मयस्सर है
मुस्तक़र की ख़्वाहिश में मुंतशिर से रहते हैं
रखे रखे हो गए पुराने तमाम रिश्ते
मुझे क़रार भँवर में उसे किनारे में
ये कारोबार-ए-मोहब्बत है तुम न समझोगे
सैंत कर ईमान कुछ दिन और रखना है अभी