वो और होंगे नुफ़ूस बे-दिल जो कहकशाएँ शुमारते हैं
वो और होंगे नुफ़ूस बे-दिल जो कहकशाएँ शुमारते हैं
ये रात है पूरे चाँद की हम तिरी मोहब्बत हिसारते हैं
बड़ी महारत से उस की साँसों में नग़्मगी कर रहे हैं पैदा
वो जितना अंजान बन रहा है हम उतना उस को निहारते हैं
तुम्हारी नज़रों का है मुक़द्दर ये झील का पुर-सुकून पानी
हम अपनी आँखों के कैनवस पर हज़ार मौजें उभारते हैं
सभी मुसाफ़िर चलें अगर एक रुख़ तो क्या है मज़ा सफ़र का
तुम अपने इम्काँ तलाश कर लो मुझे परिंदे पुकारते हैं
तुम्हीं से 'साबिर' हुई है कोताही तीरगी की मुहाफ़िज़त में
सुना नहीं था कभी ये पहले कि जुगनू शब-ख़ून मारते हैं
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