वा'दा था कब का बार-ए-ख़ुदा सोचने तो दे
वा'दा था कब का बार-ए-ख़ुदा सोचने तो दे
माक़ूल कोई उज़्र नया सोचने तो दे
पर्ची वो जिस पे लिक्खा हुआ है पता तिरा
रख कर कहाँ मैं भूल गया सोचने तो दे
वो हिज्र भी तो गूँगी पहेली से कम न था
अब वस्ल आ पड़ा है ज़रा सोचने तो दे
ऐ चाल-बाज़ ऐसे न इतरा के मुस्कुरा
चलने दे चाल मुझ को ज़रा सोचने तो दे
हों इख़्तियार से भी परे कुछ तसर्रुफ़ात
अंदेशा-ए-हिसाब हटा सोचने तो दे
जो हो गया मैं उस पे हूँ राज़ी ख़ुदा क़सम
ये क्यूँ हुआ ये कैसे हुआ सोचने तो दे
(589) Peoples Rate This