'ज़फ़र' वहाँ कि जहाँ हो कोई भी हद क़ाएम
फ़क़त बशर नहीं होता ख़ुदा भी होता है
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हर एक मरहला-ए-दर्द से गुज़र भी गया
कोई तो तर्क-ए-मरासिम पे वास्ता रह जाए
सितारे सो गए तो आसमाँ कैसा लगेगा
मैं एक हाथ तिरी मौत से मिला आया
मैं जिस के साथ 'ज़फ़र' उम्र भर उठा बैठा
वाक़िफ़ ख़ुद अपनी चश्म-ए-गुरेज़ाँ से कौन है
बदन ने छोड़ दिया रूह ने रिहा न किया
कहती है ये शाम की नर्म हवा फिर महकेगी इस घर की फ़ज़ा
'ज़फ़र' है बेहतरी इस में कि मैं ख़मोश रहूँ
अपनी यादें उस से वापस माँग कर
शायरी फूल खिलाने के सिवा कुछ भी नहीं है तो 'ज़फ़र'
पहले भी ख़ुदा को मानता था