ये ज़ख़्म-ए-इश्क़ है कोशिश करो हरा ही रहे
कसक तो जा न सकेगी अगर ये भर भी गया
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शाम से पहले तिरी शाम न होने दूँगा
शायरी फूल खिलाने के सिवा कुछ भी नहीं है तो 'ज़फ़र'
बदन ने छोड़ दिया रूह ने रिहा न किया
दूर तक एक ख़ला है सो ख़ला के अंदर
अब कहीं और कहाँ ख़ाक-बसर हों तिरे बंदे जा कर
महसूस लम्स जिस का सर-ए-रह-गुज़र किया
मोहब्बतें थीं कुछ ऐसी विसाल हो के रहा
इक-आध बार तो जाँ वारनी ही पड़ती है
सुब्ह की सैर की करता हूँ तमन्ना शब भर
मुड़ के जो आ नहीं पाया होगा उस कूचे में जा के 'ज़फ़र'
रात को ख़्वाब हो गई दिन को ख़याल हो गई
दिन को मिस्मार हुए रात को तामीर हुए