वो क्यूँ न रूठता मैं ने भी तो ख़ता की थी
बहुत ख़याल रखा था बहुत वफ़ा की थी
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मैं सोचता हूँ मुझे इंतिज़ार किस का है
यहाँ जो पेड़ थे अपनी जड़ों को छोड़ चुके
मिलूँ तो कैसे मिलूँ बे-तलब किसी से मैं
गुज़ारता हूँ जो शब इश्क़-ए-बे-मआश के साथ
दिन को मिस्मार हुए रात को तामीर हुए
न इंतिज़ार करो इन का ऐ अज़ा-दारो
तुम्हें तो क़ब्र की मिट्टी भी अब पुकारती है
सब सितम याद हैं सारी हमदर्दियाँ याद हैं
वो नींद अधूरी थी क्या ख़्वाब ना-तमाम था क्या
मैं जिस के साथ 'ज़फ़र' उम्र भर उठा बैठा
जीने का दरस सब से जुदा चाहिए मुझे
बना हुआ है मिरा शहर क़त्ल-गाह कोई