उस से बिछड़ के एक उसी का हाल नहीं मैं जान सका
वैसे ख़बर तो हर पल मुझ तक दुनिया भर की आती रही
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दिन को मिस्मार हुए रात को तामीर हुए
सर-ए-शाम लुट चुका हूँ सर-ए-आम लुट चुका हूँ
इक-आध बार तो जाँ वारनी ही पड़ती है
हम इतना चाहते थे एक दूसरे को 'ज़फ़र'
'ज़फ़र' वहाँ कि जहाँ हो कोई भी हद क़ाएम
वो एक बार भी मुझ से नज़र मिलाए अगर
कोई तो तर्क-ए-मरासिम पे वास्ता रह जाए
वाक़िफ़ ख़ुद अपनी चश्म-ए-गुरेज़ाँ से कौन है
यहाँ है धूप वहाँ साए हैं चले जाओ
वो नींद अधूरी थी क्या ख़्वाब ना-तमाम था क्या
वो क्यूँ न रूठता मैं ने भी तो ख़ता की थी