तुम्हें तो क़ब्र की मिट्टी भी अब पुकारती है
यहाँ के लोग भी उकताए हैं चले जाओ
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वो नींद अधूरी थी क्या ख़्वाब-ए-ना-तमाम था क्या
अपनी यकजाई में भी ख़ुद से जुदा रहता हूँ
हम इतना चाहते थे एक दूसरे को 'ज़फ़र'
अब कहीं और कहाँ ख़ाक-बसर हों तिरे बंदे जा कर
उम्र भर लिखते रहे फिर भी वरक़ सादा रहा
मिलूँ तो कैसे मिलूँ बे-तलब किसी से मैं
क़िस्मत में अगर जुदाइयाँ हैं
निगाह करने में लगता है क्या ज़माना कोई
किसी ख़याल की सरशारी में जारी-ओ-सारी यारी में
बदन ने छोड़ दिया रूह ने रिहा न किया
मैं जिस के साथ 'ज़फ़र' उम्र भर उठा बैठा
नए कपड़े बदल और बाल बना तिरे चाहने वाले और भी हैं