शिकायत उस से नहीं अपने-आप से है मुझे
वो बेवफ़ा था तो मैं आस क्यूँ लगा बैठा
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पहले भी ख़ुदा को मानता था
नज़र से दूर हैं दिल से जुदा न हम हैं न तुम
वो नींद अधूरी थी क्या ख़्वाब-ए-ना-तमाम था क्या
शायरी फूल खिलाने के सिवा कुछ भी नहीं है तो 'ज़फ़र'
मैं ऐसे जमघटे में खो गया हूँ
वाक़िफ़ ख़ुद अपनी चश्म-ए-गुरेज़ाँ से कौन है
'ज़फ़र' है बेहतरी इस में कि मैं ख़मोश रहूँ
यहाँ जो पेड़ थे अपनी जड़ों को छोड़ चुके
अपनी यकजाई में भी ख़ुद से जुदा रहता हूँ
किसी ख़याल की सरशारी में जारी-ओ-सारी यारी में
तुम्हें तो क़ब्र की मिट्टी भी अब पुकारती है
शाम से पहले तिरी शाम न होने दूँगा