शाम से पहले तिरी शाम न होने दूँगा
ज़िंदगी मैं तुझे नाकाम न होने दूँगा
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कहती है ये शाम की नर्म हवा फिर महकेगी इस घर की फ़ज़ा
जिधर हो ज़िंदगी मुश्किल उधर नहीं आते
दूर तक एक ख़ला है सो ख़ला के अंदर
हर शख़्स बिछड़ चुका है मुझ से
मैं ऐसे जमघटे में खो गया हूँ
अजब इक बे-यक़ीनी की फ़ज़ा है
तुम्हें तो क़ब्र की मिट्टी भी अब पुकारती है
मैं जिस के साथ 'ज़फ़र' उम्र भर उठा बैठा
वो क्यूँ न रूठता मैं ने भी तो ख़ता की थी
यहाँ है धूप वहाँ साए हैं चले जाओ
वो लोग आज ख़ुद इक दास्ताँ का हिस्सा हैं
वो नींद अधूरी थी क्या ख़्वाब-ए-ना-तमाम था क्या