शायरी फूल खिलाने के सिवा कुछ भी नहीं है तो 'ज़फ़र'
बाग़ ही कोई लगाता कि जहाँ खेलते बच्चे जा कर
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'ज़फ़र' वहाँ कि जहाँ हो कोई भी हद क़ाएम
रात को ख़्वाब हो गई दिन को ख़याल हो गई
डूबता हूँ जो हटाता हूँ नज़र पानी से
शिकायत उस से नहीं अपने-आप से है मुझे
में सोचता हूँ जिसे आश्ना भी होता है
वाक़िफ़ ख़ुद अपनी चश्म-ए-गुरेज़ाँ से कौन है
निगाह करने में लगता है क्या ज़माना कोई
बना हुआ है मिरा शहर क़त्ल-गाह कोई
अपनी यकजाई में भी ख़ुद से जुदा रहता हूँ
हम इतना चाहते थे एक दूसरे को 'ज़फ़र'
इलाज-ए-अहल-ए-सितम चाहिए अभी से 'ज़फ़र'
मैं ने घाटे का भी इक सौदा किया