पहले भी ख़ुदा को मानता था
और अब भी ख़ुदा को मानता हूँ
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मैं ने घाटे का भी इक सौदा किया
वो नींद अधूरी थी क्या ख़्वाब-ए-ना-तमाम था क्या
बना हुआ है मिरा शहर क़त्ल-गाह कोई
सर-ए-शाम लुट चुका हूँ सर-ए-आम लुट चुका हूँ
नामा-बर कोई नहीं है तो किसी लहर के हाथ
नज़र आते नहीं हैं बहर में हम
ये इब्तिदा थी कि मैं ने उसे पुकारा था
हर शख़्स बिछड़ चुका है मुझ से
तन्हाई तामीर करेगी घर से बेहतर इक ज़िंदान
छाने होंगे सहरा जिस ने वो ही जान सका होगा
ख़ुमार-ए-शब में जो इक दूसरे पे गिरते हैं
ऐ काश ख़ुद सुकूत भी मुझ से हो हम-कलाम