मैं ने घाटे का भी इक सौदा किया
जिस से जो व'अदा किया पूरा किया
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ख़िज़ाँ की रुत है जनम-दिन है और धुआँ और फूल
कुछ बे-ठिकाना करती रहीं हिजरतें मुदाम
इक-आध बार तो जाँ वारनी ही पड़ती है
किसी तौर हो न पिन्हाँ तिरा रंग-ए-रू-सियाही
नामा-बर कोई नहीं है तो किसी लहर के हाथ
यहाँ है धूप वहाँ साए हैं चले जाओ
सुब्ह की सैर की करता हूँ तमन्ना शब भर
ये इब्तिदा थी कि मैं ने उसे पुकारा था
डूबता हूँ जो हटाता हूँ नज़र पानी से
मोहब्बतें थीं कुछ ऐसी विसाल हो के रहा
दिन को मिस्मार हुए रात को तामीर हुए