मैं सोचता हूँ मुझे इंतिज़ार किस का है
किवाड़ रात को घर का अगर खुला रह जाए
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शायरी फूल खिलाने के सिवा कुछ भी नहीं है तो 'ज़फ़र'
ख़िज़ाँ की रुत है जनम-दिन है और धुआँ और फूल
उस से बिछड़ के एक उसी का हाल नहीं मैं जान सका
अपनी यकजाई में भी ख़ुद से जुदा रहता हूँ
वो नींद अधूरी थी क्या ख़्वाब-ए-ना-तमाम था क्या
नए कपड़े बदल और बाल बना तिरे चाहने वाले और भी हैं
किसी ज़िंदाँ में सोचना है अबस
पड़ा न फ़र्क़ कोई पैरहन बदल के भी
कुछ बे-ठिकाना करती रहीं हिजरतें मुदाम
मैं जिस के साथ 'ज़फ़र' उम्र भर उठा बैठा
क़िस्मत में अगर जुदाइयाँ हैं