मैं ऐसे जमघटे में खो गया हूँ
जहाँ मेरे सिवा कोई नहीं है
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अपनी यादें उस से वापस माँग कर
हर दर्जे पे इश्क़ कर के देखा
मैं जिस के साथ 'ज़फ़र' उम्र भर उठा बैठा
पड़ा न फ़र्क़ कोई पैरहन बदल के भी
नए कपड़े बदल और बाल बना तिरे चाहने वाले और भी हैं
वो एक बार भी मुझ से नज़र मिलाए अगर
शाम से पहले तिरी शाम न होने दूँगा
ये ज़ख़्म-ए-इश्क़ है कोशिश करो हरा ही रहे
क़िस्मत में अगर जुदाइयाँ हैं
ऐ काश ख़ुद सुकूत भी मुझ से हो हम-कलाम
में सोचता हूँ जिसे आश्ना भी होता है