कुछ बे-ठिकाना करती रहीं हिजरतें मुदाम
कुछ मेरी वहशतों ने मुझे दर-ब-दर किया
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जिधर हो ज़िंदगी मुश्किल उधर नहीं आते
सब सितम याद हैं सारी हमदर्दियाँ याद हैं
ख़िज़ाँ की रुत है जनम-दिन है और धुआँ और फूल
दूर तक एक ख़ला है सो ख़ला के अंदर
निगाह करने में लगता है क्या ज़माना कोई
नामा-बर कोई नहीं है तो किसी लहर के हाथ
इक-आध बार तो जाँ वारनी ही पड़ती है
मिसाल-ए-संग पड़ा कब तक इंतिज़ार करूँ
वो क्यूँ न रूठता मैं ने भी तो ख़ता की थी
मैं सोचता हूँ मुझे इंतिज़ार किस का है
हर एक मरहला-ए-दर्द से गुज़र भी गया
मैं भी हूँ इक मकान की हद में