कितनी बे-सूद जुदाई है कि दुख भी न मिला
कोई धोका ही वो देता कि मैं पछता सकता
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इलाज-ए-अहल-ए-सितम चाहिए अभी से 'ज़फ़र'
पहले भी ख़ुदा को मानता था
उम्र भर लिखते रहे फिर भी वरक़ सादा रहा
अपनी यकजाई में भी ख़ुद से जुदा रहता हूँ
मिलूँ तो कैसे मिलूँ बे-तलब किसी से मैं
दूर तक एक ख़ला है सो ख़ला के अंदर
बदन ने छोड़ दिया रूह ने रिहा न किया
दरीचा बे-सदा कोई नहीं है
वो लोग आज ख़ुद इक दास्ताँ का हिस्सा हैं
अक्स पानी में अगर क़ैद किया जा सकता
ये ज़ख़्म-ए-इश्क़ है कोशिश करो हरा ही रहे
लहू में नाचती हमेश्गी उदास हो के रह गई