इक-आध बार तो जाँ वारनी ही पड़ती है
मोहब्बतें हों तो बनता नहीं बहाना कोई
Mir Taqi Mir
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Faiz Ahmad Faiz
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Parveen Shakir
Anwar Masood
Javed Akhtar
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में सोचता हूँ जिसे आश्ना भी होता है
ये सोच के राख हो गया हूँ
वो एक बार भी मुझ से नज़र मिलाए अगर
हर शख़्स बिछड़ चुका है मुझ से
अपनी यादें उस से वापस माँग कर
नए कपड़े बदल और बाल बना तिरे चाहने वाले और भी हैं
ये इब्तिदा थी कि मैं ने उसे पुकारा था
वो जाग रहा हो शायद अब तक
गुज़ारता हूँ जो शब इश्क़-ए-बे-मआश के साथ
तन्हाई तामीर करेगी घर से बेहतर इक ज़िंदान
मुड़ के जो आ नहीं पाया होगा उस कूचे में जा के 'ज़फ़र'
अजब इक बे-यक़ीनी की फ़ज़ा है