हर दर्जे पे इश्क़ कर के देखा
हर दर्जे में बेवफ़ाइयाँ हैं
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किसी ख़याल की सरशारी में जारी-ओ-सारी यारी में
नज़र आते नहीं हैं बहर में हम
बेवफ़ा लोगों में रहना तिरी क़िस्मत ही सही
शाम से पहले तिरी शाम न होने दूँगा
कोई तो तर्क-ए-मरासिम पे वास्ता रह जाए
वो लोग आज ख़ुद इक दास्ताँ का हिस्सा हैं
ऐ काश ख़ुद सुकूत भी मुझ से हो हम-कलाम
वो नींद अधूरी थी क्या ख़्वाब ना-तमाम था क्या
नए कपड़े बदल और बाल बना तिरे चाहने वाले और भी हैं
यहाँ है धूप वहाँ साए हैं चले जाओ
दूर तक एक ख़ला है सो ख़ला के अंदर
ख़िज़ाँ की रुत है जनम-दिन है और धुआँ और फूल