बना हुआ है मिरा शहर क़त्ल-गाह कोई
पलट के माओं के लख़्त-ए-जिगर नहीं आते
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वो क्यूँ न रूठता मैं ने भी तो ख़ता की थी
हम इतना चाहते थे एक दूसरे को 'ज़फ़र'
मैं सोचता हूँ मुझे इंतिज़ार किस का है
पड़ा न फ़र्क़ कोई पैरहन बदल के भी
अब कहीं और कहाँ ख़ाक-बसर हों तिरे बंदे जा कर
महसूस लम्स जिस का सर-ए-रह-गुज़र किया
नए कपड़े बदल और बाल बना तिरे चाहने वाले और भी हैं
नामा-बर कोई नहीं है तो किसी लहर के हाथ
काम इतनी ही फ़क़त राहगुज़र आएगी
ऐ काश ख़ुद सुकूत भी मुझ से हो हम-कलाम
कोई तो तर्क-ए-मरासिम पे वास्ता रह जाए
दिन को मिस्मार हुए रात को तामीर हुए