बदन ने छोड़ दिया रूह ने रिहा न किया
मैं क़ैद ही में रहा क़ैद से निकल के भी
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शिकायत उस से नहीं अपने-आप से है मुझे
नज़र आते नहीं हैं बहर में हम
यहाँ है धूप वहाँ साए हैं चले जाओ
दूर तक एक ख़ला है सो ख़ला के अंदर
उस से बिछड़ के एक उसी का हाल नहीं मैं जान सका
बना हुआ है मिरा शहर क़त्ल-गाह कोई
तुम्हें तो क़ब्र की मिट्टी भी अब पुकारती है
बेवफ़ा लोगों में रहना तिरी क़िस्मत ही सही
मैं जिस के साथ 'ज़फ़र' उम्र भर उठा बैठा
छाने होंगे सहरा जिस ने वो ही जान सका होगा
यहाँ जो पेड़ थे अपनी जड़ों को छोड़ चुके
पड़ा न फ़र्क़ कोई पैरहन बदल के भी