अपनी यादें उस से वापस माँग कर
मैं ने अपने-आप को यकजा किया
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हम इतना चाहते थे एक दूसरे को 'ज़फ़र'
कुछ बे-ठिकाना करती रहीं हिजरतें मुदाम
मैं भी हूँ इक मकान की हद में
अजब इक बे-यक़ीनी की फ़ज़ा है
यहाँ जो पेड़ थे अपनी जड़ों को छोड़ चुके
काम इतनी ही फ़क़त राहगुज़र आएगी
नए कपड़े बदल और बाल बना तिरे चाहने वाले और भी हैं
तन्हाई तामीर करेगी घर से बेहतर इक ज़िंदान
गुज़ारता हूँ जो शब इश्क़-ए-बे-मआश के साथ
नामा-बर कोई नहीं है तो किसी लहर के हाथ
सुब्ह की सैर की करता हूँ तमन्ना शब भर
'ज़फ़र' है बेहतरी इस में कि मैं ख़मोश रहूँ