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अब कहीं और कहाँ ख़ाक-बसर हों तिरे बंदे जा कर - साबिर ज़फ़र कविता - Darsaal

अब कहीं और कहाँ ख़ाक-बसर हों तिरे बंदे जा कर

अब कहीं और कहाँ ख़ाक-बसर हों तिरे बंदे जा कर

ज़िंदगी और भी मग़्मूम लगे शहर से आगे जा कर

अदम-आबाद के लोगों का मिज़ाज इन दिनों कैसा होगा

लौट आने की तवक़्क़ो हो किसी को तो वो पूछे जा कर

मैं घना पेड़ हूँ आया भी कभी जो मिरे साए को ज़वाल

इन ख़िज़ाओं से बहुत दूर गिरेंगे मिरे पत्ते जा कर

कट भी सकते हैं शब ओ रोज़ मिरे इन ही गली कूचों में

लौटना है तिरी जानिब ही अगर तेरे नगर से जा कर

शायरी फूल खिलाने के सिवा कुछ भी नहीं है तो 'ज़फ़र'

बाग़ ही कोई लगाता कि जहाँ खेलते बच्चे जा कर

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In Hindi By Famous Poet Sabir Zafar. is written by Sabir Zafar. Complete Poem in Hindi by Sabir Zafar. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.