ये उम्र भर का सफ़र है इसी सहारे पर
कि वो खड़ा है अभी दूसरे किनारे पर
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ख़्वाब तुम्हारे आते हैं
इक आग देखता था और जल रहा था मैं
इक शक्ल बे-इरादा सर-ए-बाम आ गई
वो धूप वो गलियाँ वही उलझन नज़र आए
गुल ओ महताब लिखना चाहता हूँ
इक शोर समेटो जीवन भर और चुप दरिया में उतर जाओ
असीर-ए-शाम हैं ढलते दिखाई देते हैं
ख़िज़ाँ से सीना भरा हो लेकिन तुम अपना चेहरा गुलाब रखना
खिले हुए हैं फूल सितारे दरिया के उस पार
जो ख़्वाब मेरे नहीं थे मैं उन को देखता था
खेल रचाया उस ने सारा वर्ना फिर क्यूँ होता मैं