वो धूप वो गलियाँ वही उलझन नज़र आए
वो धूप वो गलियाँ वही उलझन नज़र आए
इस शहर से उस शहर का आँगन नज़र आए
इस ग़म के उजाले में जो इक शख़्स खड़ा है
वो दूर से मुझ को मिरा साजन नज़र आए
इक हिज्र के शोले में कई बार जले हम
इस आस में शायद कि नया-पन नज़र आए
ये रात गए कौन है इस पेड़ के नीचे
इक दीप सा हर शाख़ पे रौशन नज़र आए
वो बात कहो जिस को तरसती रहे दुनिया
वो हर्फ़ लिखो जिस में कोई फ़न नज़र आए
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