देखो ऐसा अजब मुसाफ़िर फिर कब लौट के आता है
देखो ऐसा अजब मुसाफ़िर फिर कब लौट के आता है
दरिया उस को रस्ता दे कर आज तलक पछताता है
जंगल जंगल घूमने वाला अपने ध्यान की दस्तक से
कोसों दूर इक घर में किसी को सारी रात जगाता है
जाने किस की आस लगी है जाने किस को आना है
कोई रेल की सीटी सुन कर सोते से उठ जाता है
मेरी गली के सामने वाले घर की अँधेरी खिड़की में
उस लड़की से बातें कर के कोई मुझे दोहराता है
कैसा झूटा सहारा है ये दुख से आँख चुराने का
कोई किसी का हाल सुना कर अपना-आप छुपाता है
कच्ची मुंडेरों वाले घर में शाम के ढलते ही हर रोज़
अपने दुपट्टे के पल्लू से कोई चराग़ जलाता है
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