तिलिस्म टूट गया शब का मैं भी घर को चलूँ
रुका था जिस के लिए वो भी घर गया कब का
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इस क़दर ऊँची हुई दीवार-ए-नफ़रत हर तरफ़
तुझे तलाश है जिस की गुज़र गया कब का
क्या पता क्या था उधर और क्या न था
कैसी मअनी की क़बा रिश्तों को पहनाई गई
मुझ से पहले मिरे वतीरे देख
मैं अकेला हूँ तू भी तन्हा है