सजा कर चार-सू रंगीं महल तेरे ख़यालों के
तिरी यादों की रानाई में ज़ेबाई में जीते हैं
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कोई मसरूफ़ियत होगी वगर्ना मस्लहत होगी
नहीं जाने है वो हर्फ़-ए-सताइश बरमला कहना
ये सैल-ए-अश्क मुझे गुफ़्तुगू की ताब तो दे
ब-ज़ाहिर रौनक़ों में बज़्म-आराई में जीते हैं
दुरुस्त है कि ये दिन राएगाँ नहीं गुज़रे