कोई मसरूफ़ियत होगी वगर्ना मस्लहत होगी
न इस पैमाँ-फ़रामोशी से उस को बेवफ़ा कहना
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दुरुस्त है कि ये दिन राएगाँ नहीं गुज़रे
नहीं जाने है वो हर्फ़-ए-सताइश बरमला कहना
सजा कर चार-सू रंगीं महल तेरे ख़यालों के
ब-ज़ाहिर रौनक़ों में बज़्म-आराई में जीते हैं
ये सैल-ए-अश्क मुझे गुफ़्तुगू की ताब तो दे