रौशनी ख़ुद भी चराग़ों से अलग रहती है
दिल में जो रहते हैं वो दिल नहीं होने पाते
Mir Taqi Mir
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Habib Jalib
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आप के लब पे और वफ़ा की क़सम
रवाँ है क़ाफ़िला-ए-रूह-ए-इलतिफ़ात अभी
कुफ़्र ओ इस्लाम के झगड़े को चुका दो साहब
कमाल-ए-ज़ब्त में यूँ अश्क-ए-मुज़्तर टूट कर निकला
है जो दरवेश वो सुल्ताँ है ये मा'लूम हुआ
सौ बार जिस को देख के हैरान हो चुके
ग़लत-फ़हमियों में जवानी गुज़ारी
उलझनों में कैसे इत्मीनान-ए-दिल पैदा करें
अजल होती रहेगी इश्क़ कर के मुल्तवी कब तक
इश्क़ आता न अगर राह-नुमाई के लिए
उस को भी हम से मोहब्बत हो ज़रूरी तो नहीं
ग़म-ए-दौराँ को बड़ी चीज़ समझ रक्खा था