पस्ती ने बुलंदी को बनाया है हक़ीक़त
ये रिफ़अत-ए-अफ़्लाक भी मुहताज-ए-ज़मीं है
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बाल-ओ-पर की जुम्बिशों को काम में लाते रहो
ऐसा भी कोई ग़म है जो तुम से नहीं पाया
रवाँ है क़ाफ़िला-ए-रूह-ए-इलतिफ़ात अभी
कमाल-ए-ज़ब्त में यूँ अश्क-ए-मुज़्तर टूट कर निकला
इक रोज़ छीन लेगी हमीं से ज़मीं हमें
पूछें तिरे ज़ुल्म का सबब हम
ग़म-ए-दौराँ को बड़ी चीज़ समझ रक्खा था
अज़ल से आज तक सज्दे किए और ये नहीं सोचा
कब तक नजात पाएँगे वहम ओ यक़ीं से हम
जो देखिए तो करम इश्क़ पर ज़रा भी नहीं
उस का वादा ता-क़यामत कम से कम
कुफ़्र ओ इस्लाम के झगड़े को चुका दो साहब