ख़्वाहिशों ने दिल को तस्वीर-ए-तमन्ना कर दिया
इक नज़र ने आइने में अक्स गहरा कर दिया
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अज़ल से आज तक सज्दे किए और ये नहीं सोचा
उस का वादा ता-क़यामत कम से कम
भीड़ तन्हाइयों का मेला है
पस्ती ने बुलंदी को बनाया है हक़ीक़त
तुझ से दामन-कशाँ नहीं हूँ मैं
पूछें तिरे ज़ुल्म का सबब हम
टुकड़े हुए थे दामन-ए-हस्ती के जिस क़दर
अजल होती रहेगी इश्क़ कर के मुल्तवी कब तक
अभी तो एक वतन छोड़ कर ही निकले हैं
गए थे नक़्द-ए-गिराँ-माया-ए-ख़ुलूस के साथ
आईना बन जाइए जल्वा-असर हो जाइए