कौन उठाए इश्क़ के अंजाम की जानिब नज़र
कुछ असर बाक़ी हैं अब तक हैरत-ए-आग़ाज़ के
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जो हमारे सफ़र का क़िस्सा है
अजल होती रहेगी इश्क़ कर के मुल्तवी कब तक
सौ बार जिस को देख के हैरान हो चुके
हुजूम-ए-ग़म है क़ल्ब ग़म-ज़दा है
है जो दरवेश वो सुल्ताँ है ये मा'लूम हुआ
मंज़िल पे पहुँचने का मुझे शौक़ हुआ तेज़
आप आए हैं सो अब घर में उजाला है बहुत
पूरी मिरे जुनूँ की ज़रूरत न कर सके
बाल-ओ-पर की जुम्बिशों को काम में लाते रहो
कब तक यक़ीन इश्क़ हमें ख़ुद न आएगा
गए थे नक़्द-ए-गिराँ-माया-ए-ख़ुलूस के साथ
आईना कैसा था वो शाम-ए-शकेबाई का