काम आएगी मिज़ाज-ए-इश्क़ की आशुफ़्तगी
और कुछ हो या न हो हंगामा-ए-महफ़िल सही
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यगाना बन के हो जाए वो बेगाना तो क्या होगा
ऐसा भी कोई ग़म है जो तुम से नहीं पाया
भीड़ तन्हाइयों का मेला है
रौशनी ख़ुद भी चराग़ों से अलग रहती है
गए थे नक़्द-ए-गिराँ-माया-ए-ख़ुलूस के साथ
ये हमीं हैं कि तिरा दर्द छुपा कर दिल में
इश्क़ आता न अगर राह-नुमाई के लिए
उलझनों में कैसे इत्मीनान-ए-दिल पैदा करें
उस को भी हम से मोहब्बत हो ज़रूरी तो नहीं
जब इश्क़ था तो दिल का उजाला था दहर में
है जो दरवेश वो सुल्ताँ है ये मा'लूम हुआ