जब इश्क़ था तो दिल का उजाला था दहर में
कोई चराग़ नूर-बदामाँ नहीं है अब
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सौ बार जिस को देख के हैरान हो चुके
इस शान का आशुफ़्ता-ओ-हैराँ न मिलेगा
आईना बन जाइए जल्वा-असर हो जाइए
इस रंग में अपने दिल-ए-नादाँ से गिला है
उजाला कर के ज़ुल्मत में घिरा हूँ
आप के लब पे और वफ़ा की क़सम
उस का वादा ता-क़यामत कम से कम
मंज़िल पे पहुँचने का मुझे शौक़ हुआ तेज़
ऐसा भी कोई ग़म है जो तुम से नहीं पाया
पस्ती ने बुलंदी को बनाया है हक़ीक़त
आप आए हैं सो अब घर में उजाला है बहुत
यगाना बन के हो जाए वो बेगाना तो क्या होगा