हवस-परस्त अदीबों पे हद लगे कोई
तबाह करते हैं लफ़्ज़ों की इस्मतें क्या क्या
Allama Iqbal
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आईना कैसा था वो शाम-ए-शकेबाई का
मंज़िल पे पहुँचने का मुझे शौक़ हुआ तेज़
इस रंग में अपने दिल-ए-नादाँ से गिला है
रवाँ है क़ाफ़िला-ए-रूह-ए-इलतिफ़ात अभी
मुसाफ़िरान-ए-रह-ए-शौक़ सुस्त-गाम हो क्यूँ
अजल होती रहेगी इश्क़ कर के मुल्तवी कब तक
उस को भी हम से मोहब्बत हो ज़रूरी तो नहीं
उलझनों में कैसे इत्मीनान-ए-दिल पैदा करें
इस शान का आशुफ़्ता-ओ-हैराँ न मिलेगा
तुझ से दामन-कशाँ नहीं हूँ मैं
रौशनी ख़ुद भी चराग़ों से अलग रहती है
चला-चल मोहलत-ए-आराम क्या है