ग़लत-फ़हमियों में जवानी गुज़ारी
कभी वो न समझे कभी हम न समझे
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हुस्न जो रंग ख़िज़ाँ में है वो पहचान गया
उस को भी हम से मोहब्बत हो ज़रूरी तो नहीं
कौन उठाए इश्क़ के अंजाम की जानिब नज़र
उलझनों में कैसे इत्मीनान-ए-दिल पैदा करें
इश्क़ आता न अगर राह-नुमाई के लिए
समझेगा आदमी को वहाँ कौन आदमी
मंज़िल पे पहुँचने का मुझे शौक़ हुआ तेज़
बाल-ओ-पर की जुम्बिशों को काम में लाते रहो
रवाँ है क़ाफ़िला-ए-रूह-ए-इलतिफ़ात अभी
आप के लब पे और वफ़ा की क़सम
जुनूँ में गुम हुए होश्यार हो कर
जो देखिए तो करम इश्क़ पर ज़रा भी नहीं