इक रोज़ छीन लेगी हमीं से ज़मीं हमें
छीनेंगे क्या ज़मीं के ख़ज़ाने ज़मीं से हम
Jaun Eliya
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क्या मआल-ए-दहर है मेरी मोहब्बत का मआल
अपने जलने में किसी को नहीं करते हैं शरीक
अज़ल से आज तक सज्दे किए और ये नहीं सोचा
आईना बन जाइए जल्वा-असर हो जाइए
सोना था जितना अहद-ए-जवानी में सो लिए
हुस्न जो रंग ख़िज़ाँ में है वो पहचान गया
सौ बार जिस को देख के हैरान हो चुके
कब तक यक़ीन इश्क़ हमें ख़ुद न आएगा
बाल-ओ-पर की जुम्बिशों को काम में लाते रहो
ग़म-ए-दौराँ को बड़ी चीज़ समझ रक्खा था
ग़लत-फ़हमियों में जवानी गुज़ारी
मुसाफ़िरान-ए-रह-ए-शौक़ सुस्त-गाम हो क्यूँ