आईना कैसा था वो शाम-ए-शकेबाई का
सामना कर न सका अपनी ही बीनाई का
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तुझ से दामन-कशाँ नहीं हूँ मैं
अच्छा हुआ कि सब दर-ओ-दीवार गिर पड़े
ख़्वाहिशों ने दिल को तस्वीर-ए-तमन्ना कर दिया
जब इश्क़ था तो दिल का उजाला था दहर में
अपने जलने में किसी को नहीं करते हैं शरीक
काम आएगी मिज़ाज-ए-इश्क़ की आशुफ़्तगी
ऐसा भी कोई ग़म है जो तुम से नहीं पाया
तुम ने रस्म-ए-जफ़ा उठा दी है
रवाँ है क़ाफ़िला-ए-रूह-ए-इलतिफ़ात अभी
ग़ालिबन मेरे अलावा कोई गुज़रा भी नहीं
टुकड़े हुए थे दामन-ए-हस्ती के जिस क़दर