मंज़िल पे पहुँचने का मुझे शौक़ हुआ तेज़
मंज़िल पे पहुँचने का मुझे शौक़ हुआ तेज़
रस्ता मिला दुश्वार तो मैं और चला तेज़
हाथों को डुबो आए हो तुम किस के लहू में
पहले तो कभी इतना न था रंग-ए-हिना तेज़
मुझ को ये नदामत है कि मैं सख़्त-गुलू था
तुझ से ये शिकायत है कि ख़ंजर न किया तेज़
चल मैं तुझे रफ़्तार का अंदाज़ सिखा दूँ
हम-राह मिरे सुस्त-क़दम मुझ से जुदा तेज़
अफ़्सुर्दगी-ए-गुल पे भरीं किस ने ये आहें
चलती है सर-ए-सहन-ए-चमन आज हवा तेज़
अब मुझ को नज़र फेर के इक जाम दे साक़ी
फिर कौन सँभालेगा अगर नश्शा हुआ तेज़
इंसान के हर ग़म पे 'सबा' चोट लगी है
शीशे के चटख़ने की भी थी कितनी सदा तेज़
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