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कसरत-ए-जल्वा को आईना-ए-वहदत समझो - सबा अकबराबादी कविता - Darsaal

कसरत-ए-जल्वा को आईना-ए-वहदत समझो

कसरत-ए-जल्वा को आईना-ए-वहदत समझो

जिस की सूरत नज़र आए वही सूरत समझो

ग़म को ग़म और न मुसीबत को मुसीबत समझो

जो दर-ए-दोस्त से मिल जाए ग़नीमत समझो

झुक के जो सैंकड़ों फ़ित्नों को जगा सकती हैं

वो निगाहें अगर उट्ठें तो क़यामत समझो

नहीं होते हैं रिया-कारी के सज्दे मुझ से

मैं अगर सर न झुकाऊँ तो इबादत समझो

रफ़्ता रफ़्ता मिरी ख़ुद्दारी से वाक़िफ़ होगे

अभी कुछ दिन मिरे अंदाज़-ए-मोहब्बत समझो

जल्वा देखोगे कहाँ दिल के अलावा अपना

मिरे टूटे हुए आईने की क़िस्मत समझो

कम नहीं दूर असीरी में सहारा ये भी

क़ैद में याद-ए-नशेमन को ग़नीमत समझो

ख़ूब समझाया है ये कातिब-ए-क़िस्मत ने हमें

जो मयस्सर हो जहाँ में उसे क़िस्मत समझो

हम-जफ़ाओं को भी अंदाज़-ए-इनायत समझें

और तुम शुक्र-ए-सितम को भी शिकायत समझो

मेरी आँखों में अभी अश्क बहुत बाक़ी हैं

तुम जो महफ़िल में चराग़ों की ज़रूरत समझो

ऐ 'सबा' क्यूँ हो दर-ए-ग़ैर पे तौहीन-तलब

अपने ही दर को हमेशा दर-ए-दौलत समझो

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In Hindi By Famous Poet Saba Akbarabadi. is written by Saba Akbarabadi. Complete Poem in Hindi by Saba Akbarabadi. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.