गरचे मिरे ख़ुलूस से वो बे-ख़बर न था
गरचे मिरे ख़ुलूस से वो बे-ख़बर न था
फिर भी मिरी वफ़ाओं का उस पर असर न था
मैं उस फ़रेब-ए-हुस्न से ख़ुद बा-ख़बर न था
वो था तो मेरे साथ ब-ज़ाहिर मगर न था
अपना उसे बना न सका मैं तमाम उम्र
मुझ में बहुत हुनर थे मगर ये हुनर न था
लब थे ख़मोश ख़ौफ़ से इज़हार-ए-इश्क़ के
पर आँसुओं को मेरे किसी का भी डर न था
सारे जहाँ की ख़ाक को हम छान्ने के ब'अद
लौटे तो देखा अपना घर अब अपना घर न था
बीमार-ए-ग़म के वास्ते क्या मौत के सिवा
कोई इलाज दहर में ऐ चारा-गर न था
क्या मय-कदे का नज़्म भी तब्दील हो गया
साक़ी जो दौर-ए-जाम इधर था उधर न था
होती भी फ़तह कैसे मिरी जब थे साथ साथ
वो लोग जिन के शाने पे ख़ुद अपना सर न था
क्यूँ उस ने की न ज़हमत-ए-चारा-गरी क़ुबूल
क्या उस के पास चारा-ए-ज़ख़्म-ए-जिगर न था
कॉफ़ी था मुझ को राह-ए-वफ़ा में ख़याल-ए-यार
'ताबिश' बला से कोई मिरा हम-सफ़र न था
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