अज़ीज़ इतना तिरा रंग-ओ-बू लगे है मुझे
अज़ीज़ इतना तिरा रंग-ओ-बू लगे है मुझे
कोई क़रीब से गुज़रे तो तू लगे है मुझे
सफ़र ख़याल का मैं किस तरह तमाम करूँ
तिरी हर एक अदा चार-सू लगे है मुझे
ज़रूर कोई अजब शय है तुझ में पोशीदा
कि तेरा ज़िक्र भी अब कू-ब-कू लगे है मुझे
मैं आसमान की जानिब भी देखता हूँ मगर
जो मेरा चाँद है वो ख़ूब-रू लगे है मुझे
मैं अपनी ज़ात में तुझ को तलाश करता हूँ
बहुत ही सहल तिरी जुस्तुजू लगे है मुझे
है ये भी एक फ़ुसून-ए-निगाह ऐ 'रिज़वान'
नहीं वो पास मगर रू-ब-रू लगे है मुझे
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