चले आइए
ज़बानों की सरहद के उस पार
जहाँ बस ख़मोशी का दरिया
मचलता है अपने में तन्हा
ख़ुद अपने अदम ही में ज़िंदा
किसी की भी आमद नहीं है
बस इक जाल पैहम हदों का
मगर कोई सरहद नहीं है
Gulzar
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ज़मीन फैल गई है हमारी रूह तलक
खींच कर ले जाएगा अंजान महवर की तरफ़
किसी बे-घर जहाँ का राज़ होना चाहिए था
आमद
मुस्तक़बिल की आँख
वीनस
उस पार
माज़रत
बाद में रखे सराबों के दयारों में क़दम
दवाम के दयार में
ख़ुदा की ख़मोशी में शायद हो उस का वजूद
किनारा-दर-किनारा मुस्तक़िल मंजधार है यूँ भी