ज़र्फ़-ए-वज़ू है जाम है इक ख़म है इक सुबू
इक बोरिया है मैं हूँ मिरी ख़ानक़ाह है
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न तारे अफ़्शाँ न कहकशाँ है नमूना हँसती हुई जबीं का
हाथ रक्खा मैं ने सोते में कहाँ
'रियाज़' एहसास-ए-ख़ुद्दारी पे कितनी चोट लगती है
कुछ भी हो 'रियाज़' आँख में आँसू नहीं आते
ये सुन के आज हश्र में वो बात भी तो हो
जी उठे हश्र में फिर जी से गुज़रने वाले
सय्याद तिरा घर मुझे जन्नत सही मगर
आफ़त हमारी जान को है बे-क़रार दिल
बहुत ही पर्दे में इज़हार-ए-आरज़ू करते
भर भर के जाम बज़्म में छलकाए जाते हैं
वा'दा था जिस का हश्र में वो बात भी तो हो
ज़िद हमारी दुआ से होती है